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जीवनी/आत्मकथा >> मदर टेरेसा

मदर टेरेसा

महेश दत्त शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3706
आईएसबीएन :81-288-0579-7

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नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध समाज सेविका ‘मदर टेरेसा’ की संपूर्ण जीवनगाथा।

Gariba Ki Masiha Mather Teresa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वृक्ष के फलों का उपभोग मनुष्य अथवा अन्य प्राणी करते हैं, नदियां स्वयं अपना जल नहीं पीतीं और और खेतों को लहलहाने वाले मेघ स्वयं उस अन्न का उपभोग नहीं करते, इसी प्रकार सज्जनों का अस्तित्व भी परोपकार के लिए होता है। उपरोक्त पक्तियां ममता की मूर्ति मां टेरेसा के जीवन पर अक्षरशः चरितार्थ होती हैं। उनका सारा दुःखियों, दरिद्रों, भूखों, पीड़ितों, रोगियों एवं विकलागों की सेवा का पर्याय बन गया था।
आज एक ओर अनन्त का अन्त पाने का प्रयास हो रहे हैं, वहीं मानव समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की उपेक्षा कर रहे हैं। बस, इसी ज्वलंत समस्या को पहचाना था ममतामयी मां टेरेसा ने। यही उनकी विशिष्टता थी, यही उनकी उनकी महानता थी। सेवा ही उनके परमलक्ष्य था। अपने इस लक्ष्य पर न तो उन्हें गर्व था न ही अभिमान था। इसी विशेषता के कारण सारा विश्व उनके समक्ष श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता था इसलिए वह मां थीं। वह ममती की, प्रेम की, स्नेह की, दया की, करुणा की प्रतिमूर्ति थीं। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध समाज सेविका ‘मदर टेरेसा’ की संपूर्ण जीवनगाथा।

अपनत्व, दया, प्रेम, सेवा आदि मानवोचित गुणों का मूर्त रूप। एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसके समक्ष जाति, धर्म, वर्ण आदि संकीर्ण साम्प्रदायिक भावनाएँ अपना अस्तित्व खो देती थीं। दुःखियों-पीड़ितों की सेवा ही जिनका धर्म था और जिन्हें अपने इसी धर्म के पालन में प्रभु के दर्शन होते थे। जो जन्म से यूगोस्लाविया की होने पर भी भारतीय थीं। भारत ही उनकी कर्मभूमि रही। सर्वथा साधनहीन होने पर भी वह पीड़ित मानवों की सेवा का संकल्प लेकर कर्मक्षेत्र में उतर पड़ीं और अनेक कठिनाइयों के आने पर भी विचलित नहीं हुईं और अन्ततः उनकी अदम्य संकल्प-शक्ति के समक्ष सभी बाधाओं को पराभूत होना पड़ा।

माँ ने विश्व के समक्ष सेवा धर्म का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह प्रशंसनीय ही नहीं, स्तुत्य भी है। इसीलिए वह विश्व का सर्वाधिक श्रद्धेय व्यक्तित्व बनीं।

प्राक्कथन

जो मानवता, दया प्रेम आदि मानवोचित गुणों का मूर्त रूप थीं, जिसके समक्ष धर्म, वर्ण, जाति आदि संकीर्ण साम्प्रदायिक भावनाएँ अपना अस्तित्व खो देती थीं, दुःखियों-दरिद्रों निराश्रितों-असहायों, परित्यक्तों-विकलांगों आदि की सेवा ही जिसका धर्म था और जिसे अपने इसी धर्म के पालन में प्रभु के दर्शन होते थे, ऐसे विरल व्यक्तित्व का नाम था, माँ टेरेसा।
माँ टेरेसा का जन्म यूगोस्लाविया के स्कपजे नगर में हुआ, किन्तु अपने कर्मक्षेत्र के रूप में उन्होंने भारत को चुना। वह भारत आयीं। यहाँ आने पर सर्वप्रथम उनका जीवन एक अध्यापिका के रूप में प्रारम्भ हुआ, तभी दरिद्रता में जीवनयापन करने वाले लोगों के कष्टों से उनका साक्षात्कार हुआ। कलकत्ता के सेंट मेरी स्कूल के पास मोतीझील बस्ती के लोगों के दुःखों-कष्टों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा।

कर्मभूमि में पदार्पण करते समय माँ के पास साधनों का सर्वथा अभाव था, यहाँ तक कि भोजन और रहने की भी व्यवस्था न थी। उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अनेक बार निराश्रितों, पीड़ितों की सेवा के लिए; उनका पेट भरने के लिए माँ को भीख भी माँगनी पड़ी, किन्तु माँ की अदम्य संकल्पशक्ति और ईश्वर के प्रति अगाध आस्था के समक्ष अन्ततः सभी बाधाएँ पराभूत हो गयीं।
एक निरूपम व्यक्तित्व होते हुए भी माँ आत्मप्रशंसा, प्रचार आदि से सर्वथा दूर रहती थीं। उनके उदात्त व्यक्तित्व को शब्दों की इस छोटी सी गागर में बांधना अत्यन्त कठिन है, फिर भी इस छोटी-सी पुस्तक से माँ के उदात्त व्यक्तित्व एवं महनीय कार्यों से पाठक परिचित हो सकें, यही हमारा उद्देश्य है।

सम्पादक

सामान्य परिचय

‘वृक्ष के फलों का उपभोग मनुष्य अथवा अन्य प्राणी करते हैं, नदियाँ स्वयं अपना जल नहीं पीतीं और खेतों को लहलहाने वाले मेघ स्वयं उस अन्न का उपभोग नहीं करते, क्योंकि सज्जनों का अस्तित्व ही परोपकार के लिए होता है।’
ये पंक्तियाँ ममता की मूर्ति माँ टेरेसा के जीवन पर अक्षरशः चरितार्थ होती हैं। उनका जीवन दुःखियों, दरिद्रों, भूखों, पीड़ितों रोगियों विकलांगों की सेवा का पर्याय बन गया था।

अपने लिए कौन जीवित नहीं रहता, मानव हो या पशु-पक्षी, अपना उदर पोषण तो सभी करते हैं, किन्तु इसे न तो कोई उपलब्धि कहा जा सकता है और न ही जीवन की सार्थकता।
आज एक ओर अनन्त का भी अन्त पाने के प्रयास हो रहे हैं, वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव-जीवन की सुख-सुविधाओं के लिए अनेक असम्भव प्रतीत होने वाले कार्यों को सम्भव कर दिखाया है, वहीं हम मानव समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की उपेक्षा जैसी कर रहे हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों पर; अनेकानेक विध्वंसात्मक आविष्कारों पर, चांद-सितारों तक पहुंचने के लिए विश्व के अनेक राष्ट्र करोड़ों-अरबों की धनराशि व्यय कर रहे हैं, किन्तु समाज के उपेक्षितों दुःखियों, पीड़ितों पर प्रायः नहीं के बराबर ही ध्यान दिया जाता है।

बस इसी ज्वलन्त समस्या को पहचाना था, ममतामयी माँ टेरेसा ने। यही उनकी विशिष्टता थी, यही उनकी महानता थी। दुःखियों, उपेक्षितों पीड़ितों की सेवा ही उनके जीवन का लक्ष्य था, जिसे वह प्रभु की सेवा मानती थीं; यीशु के आदर्शों का सच्चा अनुसरण-अनुकरण मानती थीं।
अपने लक्ष्य पर न तो उन्हें कोई गर्व था, न अभिमान; वह इसे अत्यन्त सहज-सामान्य भाव से लेती थीं। वस्तुतः उनकी यह सहजता और सामान्यता ही उनकी महानता थी; उनकी विशेषता थी, लोकोत्तरता थी। उनकी इसी विशिष्टता के कारण विश्व उनके समक्ष श्रद्धा से नत हो जाता था, इसीलिए वह माँ थीं; ममता की, प्रेम की, स्नेह की मूर्ति थीं।
विश्व की इस निरूपम विभूति का आविर्भाव 27 अगस्त 1910 ई. के दिन यूगोस्लाविया के स्कपजे नामक नगर में हुआ। उनका परिवार मूलतः अलबेनियन था।
माता-पिता ने नवजात बालिका का नाम अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ (Agnes Gonaxha Bejaxhiu) रखा।
इस बालिका के जन्म के समय कदाचित् न तो आकाश में कोई सितारा चमका, न वहाँ से कोई देवदूत ही धरा पर उतरा और न ही किसी भविष्यवक्ता ने भविष्यवाणी की कि एक दिन यह बालिका अपने शुभ कर्मों के आलोक से मानवता को एक नया मार्ग दिखाएगी।

यह भी एक अद्भुत संयोग है कि माँ टेरेसा के आविर्भाव तथा सेवा-भाव की मूर्त रूप फ्लोरेंस नाइटिंगेल के धरा से तिरोभाव का वर्ष एक ही है।
माँ टेरेसा की जन्मभूमि भले ही यूगोस्लाविया रही हो, किन्तु महापुरुषों का जीवन किसी स्थान विशेष की थाती नहीं होता, वे सम्पूर्ण मानवता के पथप्रदर्शक होते हैं; उनका व्यक्तित्व सार्वजनिक और सार्वभौमिक सम्पत्ति बन जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अथवा ‘सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहाँ’ जैसी उक्तियाँ ऐसी ही महनीय विभूतियों की महिमा को इंगित करती हैं।

अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ अपने माता-पिता की चार सन्तानों दो भाइयों तथा दो बहनों में से एक थीं।
अपनी अन्य सन्तानों के समान ही उनके माता-पिता ने उन्हें भी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए स्थानीय सरकारी स्कूल में भेजा। बालिका अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ स्कूल जाने लगी।

परिस्थितियाँ, संयोग, घटनाचक्र मानव-जीवन में विचित्र खेल खेलते हैं, इसीलिए कुछ लोग समय को बलवान कहते हैं। वास्तव में यह सत्य भी है, इस अर्थ में सत्य नहीं कि समय कोई मूर्त वस्तु है, अपितु इस अर्थ में कि समय ही इतिहास का निर्माण करता है। समय बीतने पर एक शिशु किशोर, किशोर युवा, युवा प्रौढ़और प्रौढ़ वृद्ध हो जाता है। यही नहीं कभी-कभी समय-समय पर घटी घटनाएँ मानव जीवन में एक महान परिवर्तन भी कर देती हैं; मानव की चिन्तनधारा, उसके जीवन-दर्शन को भी बदल देती हैं।

सन् 1914 ई. में यूरोप में महाविनाशक प्रथम महायुद्ध आरम्भ हुआ, जिसने वहाँ के जनजीवन को उद्वेलित कर रख दिया। माँ टेरेसा (जो उस समय चार वर्ष की बालिका अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ ही थीं) के बाल मन पर भी इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा।
इस युद्ध की विभीषिका इतिहास का एक दारुण-दुःख अध्याय तो है ही, युद्ध की विभीषिका अभी थमी न थी बालिका अग्नेस को एक भयंकर आघात का सामना करना पड़ा; अभी वह केवल सात वर्ष की अबोध बालिका ही थीं कि उनके पिता परलोक सिधार गये।

मृत्यु सृष्टि का एक अपरिहार्य नियम है, सभी को काल के अविराम गति से घूमते हुए चक्र के मृत्यु रूपी बिन्दु का सामना करना पड़ता है। जन्म जीवन का प्रारम्भ है, मृत्यु उसका अन्त। जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि ही जीवन है।
एक ओर महायुद्ध की विभीषिका से उत्पन्न मानवजीवन की अस्थिरता तथा अनिश्चितता दूसरी ओर पिता की मृत्यु, निश्चय ही इसका माँ के उस बाल मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा होगा।

समय का चक्र चलता रहा, इसके साथ ही अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ बालिका से किशोरी और किशोरी से युवती बन गयीं, सम्भवतः उस समय किसी ने कल्पना भी न की होगी कि एक दिन वह विश्व का एक सर्वाधिक श्रद्धास्पद व्यक्तित्व बनेंगी, सर्वाधिक लोकप्रिय और दीन-दुःखियों की उद्धारक बनेंगी।
भविष्य अचिन्तनीय, अकल्पनीय अदृश्य तथा अज्ञात होता है।

अपने स्कूली जीवन में ही ‘सोडालिटी’ से उनका सम्पर्क हुआ। वह इस संस्था की सदस्या बन गयीं। यहीं से उनके जीवन को एक नयी दिशा मिली; उनके विचारों को चिन्तन का एक नया आयाम मिला। अन्ततः इस नयी दिशा ने, इस नये चिन्तन ने ममता की मूर्ति माँ टेरेसा का निर्माण किया।
शैशव बीता, किशोरावस्था भी बीत गयी।
घर में सभी प्रकार का सुख था। अभाव या दुःख जैसी कोई चीज़ न थी, किन्तु अग्नेस को तो माँ बनना था, अनेक निराश्रितों, दुःखियों उपेक्षितों की माँ; विश्व की माँ, विश्वजननी बनना था।
विश्वजननी भला किसी एक की जननी कैसे बन सकती थीं ! वह कितनी सन्तानों की माँ थीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

उनकी कितनी ही सन्तानें नया जीवन पाकर सुखों का भोग कर रही हैं, कितनी ही सन्तानें उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं, भारत में ही नहीं विदेशों में भी।
जिनके जन्म देनेवालों का कोई पता तक नहीं, ऐसे कितने ही व्यक्ति माँ की ममता का सम्बल पाकर नये जीवन में प्रवेश कर चुके हैं कितनी ही अबलाएँ अपनी गृहस्थी बसा चुकी हैं।
कितने ही परित्यक्त शिशु माँ की ममता पाकर शैशव का सुख भोग रहे हैं, किलकारियाँ मार रहे हैं।
कितने ही विकलांग, मूक-बधिर माँ के शिशु-सदनों में सामान्य जीवन जी रहे हैं। शिशु भवनों की बहनों से उन्हें जो स्नेह-ममता मिलती है, उसमें उन्हें यह आभास भी नहीं होता कि वे अनाथ हैं लेकिन आज जब माँ हमारे बीच नहीं हैं, वे स्वयं को अनाथ महसूस कर रहे हैं।

माँ का विद्यार्थी जीवन ही चल रहा था, उसी समय यूगोस्लाविया के कुछ जेसुइट ईसाई धर्म प्रचारकों ने कलकत्ता में कार्य करना समीचीन समझा। उन्हें इसकी अनुमति प्राप्त हो गयी।
जेसुइट्स का पहला दल 30 दिसम्बर 1925 को कलकत्ता पहुँचा। यहाँ ये जेसुइट अपने कार्य को आगे बढ़ाने में जुट गये। इन्हीं में से एक व्यक्ति कर्सियांग गया।
कर्सियांग के जेसुइट ने यहां के कार्य के विषय में अपनी जन्मभूमि को अनेक पत्र लिखे। इन पत्रों में मिशन के कार्यक्षेत्र की प्रशंसा की गयी थी तथा इन पत्रों में बंगाल में कार्यरत जेसुइट प्रचारकों के कार्य का उत्साहजनक वर्णन किया जाता था।
कर्सियांग से भेजे गये ये पत्र माँ टेरेसा के स्कूल में सोडालिटी के सदस्यों को पढ़ाये जाते थे।

प्रायः बारह-तेरह वर्ष की अवस्था में ही माँ को ये पत्र पढ़ने-सुनने को मिले।
कहाँ कर्सियांग, कहाँ यूगोस्लाविया, किन्तु  अग्नेस को तो माँ टेरेसा बनना था। इन पत्रों का उन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि हज़ारों मील की दूरी किसी प्रकार की बाधा नहीं बन सकी। उन्हें भारत के लिए एक अदृश्य आकर्षण का अनुभव हुआ। इन पत्रों को पढ़कर उनके मानस में भारत का बिम्ब स्वतः उभरने लगा।
उन्होंने भारत आने का निश्चय कर लिया। इतनी अल्प अवस्था का यह निश्चय अवस्था के अनुसार अपरिपक्व या अस्थायी सिद्ध नहीं हुआ।
किशोरावस्था और भविष्य का दृढ़ निश्चय कहने और सुनने में यह भले ही असम्भव जैसा लगे, किन्तु माँ के दृढ़ निश्चय ने इसे सत्य सिद्ध कर दिखाया।

कहाँ एक अबोध, बालिका, कहाँ ऐसा दृढ़ निश्चय ! घर में उन्हें कोई अभाव न था फिर भी अपने भाई-बहन माँ-परिवार सब कुछ छोड़कर उन्होंने भारत आने का निश्चय कर लिया। कहाँ यूगोस्लाविया, कहाँ भारत का पूर्वी प्रान्त बंगाल !
आखिर इसके पीछे क्या कारण था ? इस भूमि ने उन्हें क्यों आकर्षित किया ?
इसका उत्तर माँ के अनुसार, ईश्वर की ही प्रेरणा थी। माँ के इस मत में सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता क्योंकि कर्सियांग के जेसुइट सदस्यों के पत्र तो सभी को पढ़ाये जाते थे, फिर यह प्रेरणा केवल माँ को ही क्यों मिली ?
महाकवि कालिदास ने लिखा है-‘सभी प्रकार से सुखी होने पर भी यदि मनुष्य रमणीय दृश्यों को देखकर तथा मधुर शब्दों को सुनकर उत्सुक हो जाता है तो अवश्य ही उसका चित्त किसी पूर्व सम्बन्ध के कारण ही उत्सुक होता है।’
तो क्या माँ टेरेसा का इस भूमि से कोई पूर्वजन्म का सम्बन्ध रहा होगा ? अन्यथा वह सब कुछ छोड़कर इस संन्यासी जीवन का वरण क्यों करतीं ?

उनके घर के विषय में पूछे जाने पर माँ का यही उत्तर होता था कि उनका घर तो सुख की सेज था, छात्र जीवन में ही उन्हें इस ईश्वरीय प्रेरणा का अनुभव होने लगा था। इस प्रेरणा से वह संन्यासिनी बनने का विचार करने लगी थीं, तब उन्हें घर के त्याग की कल्पना सहसा विचलित भी कर देती थी, किन्तु अन्तःप्रेरणा पुनः....पुनः उन्हें प्रेरित करती रहती।
इस प्रेरणा ने अन्ततः उनके इस द्वन्द्व पर विजय पा ली। उन्होंने निश्चय कर लिया कि उन्हें जाना होगा। महानतम उद्देश्य के लिए, मानवता को नया मार्ग दिखाने के लिए, ममता का आलोक विकीर्ण करने के लिए जाना होगा।
क्षुद्र स्वार्थों; निजी सुख-सुविधाओं, व्यक्तिगत जीवन के ऐश्वर्यों का बलिदान करना ही होगा।
समष्टि के लिए व्यष्टि के सुख छोड़ने ही होंगे, मैं वही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप है, सब ईश्वर का ही रूप है, फिर मैं इससे पृथक हूँ ही कहाँ ?

दरिद्रनारायण की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, प्रभु ईसा के आदेशों का सच्चा अनुकरण है।
संशयों का अन्त हो गया, दृढ़ संकल्पशक्ति के समक्ष संशय, द्वन्द्व विलीन हो गये।
माँ ने इन सुखों को तिलांजलि देने का संकल्प ले लिया, जिनके पीछे संसार भागता है।
मैं केवल मैं नहीं हूँ। यह समस्त मेरा ही विराट् स्वरूप है। दीन-दुःखियों के दुःख मेरे दुःख हैं, सम्भवतः माँ इसी निश्चय पर पहुँच गयी थीं।
किशोरावस्था पार करने के बाद माँ ने संन्यासिनी बनने का संकल्प ले लिया था।
वह कलकत्ता आने की इच्छा कर रही थीं। अपनी इस इच्छा को उन्होंने सम्बन्धित मिशनरीज के समक्ष रखा।
उनका संकल्प विजयी हुआ।

वास्तव में दृढ़ संकल्प-शक्ति होनी चाहिए। इसके सामने दुनिया की कोई बाधा नहीं ठहर सकती, किन्तु जनसामान्य में इस संकल्पशक्ति का अभाव होता है। यही कारण है कि जनसामान्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहता है।
उनकी इस संकल्प-शक्ति ने उन्हें अग्नेस गोनाक्सा बेजाक्सिउ से मदर टेरेसा बना दिया।
मदर टेरेसा, अर्थात् ममता का मूर्त रूप, स्नेह की मूर्ति माँ टेरेसा।
विश्व को मानवता का एक अभूतपूर्व मार्ग दिखाने वाली माँ टेरेसा।
जन्मदात्री न होने पर भी विश्वजननी ममतामयी माँ। करुणा की मूर्ति माँ टेरेसा दरिद्रनारायण की सेवा में रत। प्रभु यीशु की सच्ची अनुगामिनी। उनकी शिक्षाओं का मूर्त रूप।
उनका परवर्ती जीवन व्यक्तिगत जीवन न रहकर सार्वजनिक हो गया। दुःखियों की सेवा ही उनके सुखों का उत्स बन गया।
उन्होंने सिद्धान्त पक्ष को, जनसामान्य के लिए केवल आदर्श समझे जाने वाले कार्य को क्रियात्मक रूप में परिणत कर दिखाया।

माँ और भारत


माँ आत्मश्ल्घा से सदा दूर रहना चाहती थीं। प्राचीन भारतीय मनीषियों में स्वजीवन चरित लेखन की परम्परा आदि काल से ही नहीं रही है।
क्या हुआ जो माँ जन्मना भारतीय नहीं भी थीं तो ! कर्म से, विचारों से, रहन-सहन आदि से तो वह सवर्था भारतीय थीं। उनका पहनावा नीले किनारे की धोती, भूमि पर बैठना सभी कुछ तो भारतीय था।
वह अपने अतीत का न तो कहीं उल्लेख करती थीं, न माँ यह चाहती थीं कि उनकी जीवनी उनके जीवनकाल में लिखी जाए, क्योंकि प्रभु यीशु की जीवनी उनके जीवनकाल में नहीं लिखी गयी थी।
अनेक विषय में कहीं कुछ उल्लेख न करने के कारण आज हम अपने देश के अनेक मनीषियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते, केवल उनके महनीय कार्यों अथवा उनकी रचनाओं से ही यह पता चलता है कि इस नाम की कोई विभूति इस धरा पर हुई थी।

आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं, विश्व एक इकाई बन गया है, अतः किसी विभूति का कालान्तर में विस्मृति के गर्त में खो जाना सम्भव न हो सकेगा।
यह सब जानकर ही माँ अपनी जीवनी अपने जीवन में लिखने के विरुद्ध थीं, क्या उनका यह गुण प्राचीन मनीषियों की परम्परा नहीं थी ?
इसीलिए माँ किसी भारतीय के मिलने पर कहती थीं, ‘‘आप जन्म से भारतीय हैं, इसे एक संयोग ही कहा जाएगा, किन्तु मैं स्वयं भारतीय बनी हूँ।’’
वस्तुतः भारतीय के रूप में जन्म लेना एक संयोग है। इसका श्रेय हम भारतीयों को नहीं दिया जा सकता, किन्तु माँ स्वयं भारतीय बनी थीं, अतः इसका श्रेय उन्हें मिलना ही चाहिए।

इस प्रसंग में हमें महाभारत के अप्रतिम महारथी कर्ण का स्मरण हो आता है। बेचारा कर्ण, अविवाहित माँ की सन्तान कर्ण, जिसे लोकलाज के भय से माँ नदी की गोद में विसर्जित कर देती है। संयोग से वह सूत को मिल जाता है। सन्तानहीन सूत ही उसका पालन-पोषण करता है। हीरा तो हीरा ही रहता है, चाहे वह जौहरी के पास रहे अथवा धूल में पड़ा हो। वह स्वयं कह देता है कि वह हीरा है।
परिस्थितियाँ कर्ण का साथ देती हैं, दुर्योधन उसे राजा बना देता है, यह बाद की बात है, किन्तु रूढ़ियों में जकड़ा भारतीय उसकी योग्यता को न देख कर उसके कुल, गोत्र आदि को देखता है। उसे राजकुमारों के साथ किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने के सर्वथा अयोग्य समझा जाता है। तब कर्ण कह उठता है-
‘‘मैं सूत हूँ, सूतपुत्र हूँ या जो कोई भी हूँ, इसमें मेरा क्या दोष ? किसी भी कुल में जन्म लेना दैवाधीन है, जबकि पौरुष का परिचय देना मेरे अपने वश में हैं।’’

कर्ण कहता है कि किसी भी खानदान में जन्म लेना मेरे वश में नहीं है; हाँ, वीरता का परिचय देना मेरे वश में है। नीच कुल में जन्म लेना मेरी अयोग्यता का परिचायक कैसे हो सकता है, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं है, जो मेरे वश में है, उसकी बात करो।
माँ टेरेसा का कथन था, ‘‘मेरा जन्म भारत में नहीं हुआ, किन्तु मैं स्वयं भारतीय बन गयी हूँ।’’
इन दोनों में किसे महान कहा जाएगा, निश्चय ही जो अपने कर्मों से भारतीय बना हो।
परम्परागत रूप में सम्पन्नता प्राप्त होने पर यदि कोई उन्नति कर भी ले, तो इसमें उसे अधिक श्रेय नहीं दिया जा सकता, किन्तु जो स्वयं अपने बलबूते पर उन्नति करे, वह निश्चय ही महान है।
यदि हम धार्मिक दुराग्रहों से मुक्त होकर विचार करें, तो कर्ण सभी पाण्डवों से कहीं अधिक महान प्रतीत होता है। माँ टेरेसा तो सभी जन्मजात भारतीयों से महान थीं ही। इसे भी एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि माँ टेरेसा कितने ही मातृ-परित्यक्त कर्णों की माँ थीं। उनके ममतामय हाथों का; उनके वात्सल्य का सम्बल प्राप्त कर कितने ही कर्णों को एक नया जीवन मिला।




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